यंत्र हिन्दू धर्म की प्राचीन विधा

तंत्र, मंत्र और यंत्र हिन्दू धर्म की प्राचीन विधायें हैं। तंत्र का पदार्थ विज्ञान, रसायन शास्त्र, आयर्ुर्वेद, ज्योतिष एवं ध्यानयोग आदि विधाओं से गहरा संबंध है। इन सबों में इसका विशेष और बुनियादी संबन्ध हैं। ये एक दूसरे के पूरक भी हैं। तंत्र की प्रयोगशाला हमारा शरीर है। तंत्र का उद्देश्य है शरीर में विद्यमान शक्ति केंद्रों को जागृत कर विशिष्ट कार्यों को सिद्ध करना।
तंत्र
यह हिन्दूओं की एक उपासना पद्धति है। भगवान शिव इसके जन्मदाता हैं। वैसे तो तंत्र की उत्पत्ति सनातन काल से ही है लेकिन धीरे-धीरे यह लुप्त होती चली गई। नवीं सदी में इस पद्धति ने चीन में प्रवेश किया फिर वहाँ से यह जापान पहुँची। इस प्रकार सारे एशिया में इसका प्रचार हुआ। इसके सिद्धांत को गुप्त रखने का प्रावधान है। झाडÞ-फँूक एवं जादू-टोने से भी इसका गहरा संबन्ध है। इसे कला भी कहा जा सकता है।
संस्कृत के ‘तन’ धातु से तंत्र शब्द की उत्पत्ति हर्ुइ है। ‘तन’ का अर्थ- विस्तार एवं र्सवव्यापकता है। ‘त्र’ का मतलब- त्राण यानी मुक्ति करने वाला या लाभ करने वाला। कुल मिलाकर तंंत्र का मतलब – जिसके द्धारा र्सवकल्याण किया जा सके वही तंत्र है।
यंत्र
यंत्र कई प्रकार के होते हैं। इसे र्समर्थ एवं आवश्यकता के अनुसार स्वर्ण्र्ाारजत, ताम्र या भोजपत्र पर शुभ मुहर्ूत में बनाया जाता है। यंत्रों में विन्दु, त्रिभुज, चर्तुभुज, स्वस्तिक, कमल, पदमदल इत्यादि बने होते हंै।
यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके साधक अपने इष्टदेव या किसी लोक-परलोक की आत्मा या शक्ति से संबन्ध स्थापित कर सकते हैं। महषिर् दत्तात्रेय को यंत्र विद्या का जनक माना जाता है। क्यांेकि भगवान शिव ने सारे मंत्र-तंत्र को दानवों के दुरुपयोग से बचाने के लिए कीलित कर दिया। तो फिर महषिर् ने ज्यामितीय कला के द्वारा वृत्त, त्रिकोण, अर्द्धवृत्त, चतुष्कोण को आधार बनाकर बीज मंत्रों की सहायता से इन शक्तियों को रेखांकित करके विशिष्ट पूजा-यंत्रों का आविष्कार किया। गुरु गोरखनाथ एवं शंकराचार्य का समय तंत्र विद्या का स्वणिर्म काल था।
मंत्र
मंत्र शब्द मन एवं त्र के संयोग से बना है। यहाँ मन का अर्थ- विचार है और त्र का अर्थ-मुक्ति है। यानी गलत विचारों से मुक्ति। वैसे मंत्रों का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं होता है। मंत्र विशिष्ट शब्दों का एक जोडÞ है। जिसका उच्चारण विशिष्ट ध्वनि, तरंग, कंपन एवं  अदृश्य आकृतियों को जन्म देता है। इस प्रकार मंत्र द्वारा निराकार शक्तियाँ साकार होने लगती हैं। मंत्र के लगातार जाप से उत्पन्न संवेग वायुमंडल में छिपी शक्तियों को नियंत्रित करता है और उस पर साधक का प्रभाव एवं अधिकार हो जाता है।
मंत्रों की उत्पति वेदों और पुराणों से हर्ुइ है। वेदों का हर श्लोक एक मंत्र है। वेद के अनुसार मंत्र दो प्रकार के होते हैं।
१. ध्वन्यात्मक २. कार्यात्मक
ध्वन्यात्मक मंत्रों का कोई विशेष अर्थ नहीं होता है। इसकी ध्वनि ही बहुत प्रभावकारी होती है। क्योंकि यह सीधे वातावरण और शरीर में प्रवेश कर एक अलौकिक शक्ति से परिचय कराती है। इस प्रकार के मंत्र को बीज मंत्र कहते हंै।
जैसे- ओं, ऐं, ह्रीं, क्लीं, श्रीं, अं, कं, चं आदि।
कार्यात्मक मंत्रों का उपयोग पूजा पाठ में किया जाता है। जैसे -ç नमः शिवाय या श्री गणेशायः नमः इत्यादि।
प्रत्येक मंत्र का अलग-अलग उपयोग एवं प्रभाव है। यहाँ मैं केवल ‘ओम’ की व्याख्या करता हँू। इस मंत्र का संबन्ध नाभि से है। नाभि से जो श्वास के साथ उच्चारण होता है वह सीधे हमारी कुंडलिनी तक पहुंचता है। वैसे मंत्रों का उच्चारण मानसिक रुप से ही लाभकारी होता है लेकिन बीज मंत्रों का उच्चारण ध्वनि के साथ करना लाभकारी होता है। दोनों आँखों के मध्य के भाग को तीसरा नेत्र कहा जाता है। यहाँ पर छठा चक्र अवस्थित है। इस बीज मंत्र के प्रभाव से नाभि से लेकर मस्तिष्क के भीतर बने सहस्त्र दल कमल तक एक स्वरूप अपने आप बनता है। इसकेे लगातार उच्चारण से सिद्धि प्राप्त होती है।
विभिन्न धर्मो में अलग-अलग तरीकों से तंत्र साधना का विधान है ः-
बौद्ध धर्मः-
बौद्ध धर्म में विभिन्न प्रकार के शिष्यों के लिए चार प्रकार की तांत्रिक साधना बतलायी गई हैं।
१. चर्य तंत्र, २. क्रिया तंत्र, ३. योग तंत्र, ४. अनुत्तर योग तंत्र
इसमें पहला दो मूल तांत्रिक साधना नहीं है। शक्तियाँ केवल अंतिम दो- योग तंत्र एवं अनुत्तर योग तंत्र में ही निहित है। इसके द्वारा पर्ूण्ाता की प्राप्ति संभव है। हालांकि महात्मा बुद्ध अपने भिक्षुओ को जादू, टोना एवं तांत्रिक शक्तियों से दूर ही रहने का निर्देश देते थे। उनके अनुसार ये शक्तियाँ मानव को गलत राह पर ले जाती है। बाद में बौद्ध धर्म में हीनयान एवं महायान दो भाग हो गये। हीनयान के मानव शारीरिक सुखों को त्यागकर मोक्ष प्राप्ति संभव मानते हैं। लेकिन महायान में शारीरिक सुखों को भोग करके मोक्ष प्राप्ति की बात करते हैं। यहीं से प्रारंभ होती है महायान की तंत्र साधना इसमें ये लोग स्त्रियों का भी उपयोग करते हैं। इनकी साधना पद्धति को बज्रयान कहते हैं। बज्रयान का मतलब है- नाशवान।
बज्रयान की दो शाखाएँ हैं ः- १. सहजयान २. कालचक्र यान।
बौद्ध धर्म में मंत्र का बहुत महत्त्व है। इनकी एक मंत्र है जिसे ये महामंत्र कहते हैं।
“ओं मणि पद्में हुम”
इसी मंत्र से साधक और लामा लोग तंत्र की साधना करते हैं। यह बहुत ही प्रभावकारी मंत्र है। बौद्ध लामाओं के अनुसार इस मंत्र का संबन्ध शरीर के चार भागो से है।
जैसे ः- ओं का- कंठ से, मणि का- हृदय से, पद्म का- नाभि से, और हुम का- काम केन्द्र्र से।
इस एक छोटे से महामंत्र के जाप से उत्पन्न ध्वनियाँ पूरे शरीर में गूँजती हैं और सातों चक्रों को जागृत करती हैं।
जैन धर्म में तंत्र का महत्व
जैन धर्म में ध्यान योग के साथ-साथ तंत्र, यंत्र, मंत्र तीनों को भी विशेष रुप से उल्लेख किया गया है। र्सवज्ञ भाषित गणधर देव द्वारा रचित द्वादशांग में बारहवाँ अंग दृष्टिवाद है। उसके पाँच विभाग हैं।
१. परिक्रम २. सूत्र ३. पर्ूवानुयोग ४. पर्ूवगत ५. चूणिर्का
इस में चौथे पर्ूवगत के १४ भेद है। उनमें विद्यानुवाद नामक एक पर्व है। जिस में तंत्र, मंत्र, यंत्र का वर्ण्र्ाामिलता है।
जैन धर्म में तंत्र के दो प्रकार बताए हैं। लौकिक और लोकोत्तर
लौकिक- इसका संबन्ध जादू टोना, नजर उतारना, भूत-प्रेत बाधा, वशीकरण, मारण इत्यादि से है।
लोकोत्तर – यह आत्मोन्नति के लिए किया जाता है।
जैनों का मूल और महामंत्र है णमोकार मंत्र। इसे बहुत ही प्रभावकारी माना जाता है। इसके संबन्ध में तो यहाँ तक कहा जाता है कि जो व्यक्ति णमोकार मंत्र का नियमपर्ूवक आठ करोडÞ, आठ लाख, आठ हजार, आठ सौ आठ बार जाप करेगा वह परम सत्य को प्राप्त करेगा एवं जन्म मृत्यु के चक्र से छुटकारा पायेगा। इसमें इसके अलावा अलग-अलग कार्याें के लिए अलग – अलग मंत्रों के जाप का भी प्रावधान है। जैसे ः- धन प्राप्ति के लिए -‘क्लीं’, शांति के लिए- ‘हृी’, विद्या के लिए – ‘ऐं’ कार्यसिद्धि के लिए -‘झों’  इत्यादि।
आदि शंकराचार्य ने तंत्र -मंत्र की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सौर्न्दर्य लहरी’ पाठकों एवं साधको के लिए काफी उपयोगी है। इसमें सौ यंत्र हैं और प्रत्येक का एक-एक मंत्र हैं। इसके अलावे अजित मुखर्जी का ‘तंत्र आर्ट’ और फिलिप राँसन का ‘दी तंत्र’ काफी उपयोगी है। इसमें प्राचीन मंदिरों के तंत्र चित्रों का विस्तार से उल्लेख किंया गया है। इसके अलावे तंत्र को गहर्राई से समझने के लिए ओशो के प्रवचनों का तंत्र सूत्र को पढÞना भी लाभकारी होगा जो छः खण्डो में है।
मंत्रयोग को एक विज्ञान भी कहा गया है। ‘मननात्त्रायते इति मंत्रः’ इसका अर्थ है- जिसके बार-बार स्मरण मात्र से मनुष्य जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है और उसके जीवन में अलौकिक शक्तियों का उदय होता है।
सौर्न्दर्य लहरी के प्रथम श्लोक में शंकराचार्य कहते हैं –
‘शिवः शक्तियुक्तो यदि शक्ति प्रभवितुं खलम’ सौर्न्दर्यलहरी -१
अर्थात् शक्ति की प्रकृति त्रिगुणात्मक होती है। इसी कारण से तंत्र में शक्ति को अधोमुखि त्रिभुज के रुप में अभिव्यक्त किया जाता है। इन तीनों तत्वों को सत्व, रज, तम और परा, परापरा और अपरा तथा सगुणात्मक उपासना में महासरस्वती, महालक्ष्मी व महाकाली की संज्ञा दी जाती है। इस के अलावे ब्रम्हाण्ड में छः प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान हैं, जिसे पराशक्ति, ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति, कुण्डलिनी शक्ति और मंत्र शंक्ति कहते हैं।
हिन्दू धर्म में तंत्र का महत्वः-
मार्कण्डेय पुराण की दर्ुगासप्तशती और अथर्ववेद तंत्र शास्त्र का सर्वोत्तम ग्रंथ है। मार्कण्डेय पुराण में ७०० श्लोकों का उल्लेख है। इसमें माँ दर्ुगा जो शक्ति की ही देवी है, इनकी गोपनीय तांत्रिक साधना का वर्ण्र्ााहै। इसमें सबसे महत्वपर्ूण्ा मंत्र है।
‘ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चै नमः’र्
र्सव मनोकामना के पर्ूर्ति के लिए नव दर्ुगा यंत्र के साथ इस मंत्र के जाप का विधान बताया जाता है। शक्ति की अभिव्यक्ति के लिए हमेशा आधार की आवश्यकता होती है, और बिना आधार शक्ति प्रकट नहीं होती।
मंत्र में अद्भुत और असीमित शक्तियाँ निहित हैं। कोई भी मंत्र अपने आप में पर्ूण्ा और भव्य है। साधक विभिन्न मंत्रों का प्रयोग विभिन्न शक्तियों को प्राप्त करने के लिए करते हैं। यह एक विराट विज्ञान है। केवल तंत्र शास्त्र पढÞकर कोई तांत्रिक नहीं हो सकता। बिना गहन साधना के कुछ भी संभव नही है। इसमें सिद्ध गुरु की भी आवश्यकता होती है। यदि गुरु न मिले तो शुद्ध हो कर शुभ मर्ुर्हूत में मंत्र पाठ करें। यंत्र पूजन करें। शिव या हनुमान चालिसा और आरती का जाप करें। फिर साधना प्रारम्भ करें।
मंत्र साधना में पाँच शुद्धियाँ अनिवार्य है। भाव शुद्धि, मंत्र शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, देह शुद्धि और स्थान शुद्धि। इसके अलावे पर्ूव दिशा में बैठकर जाप करना लाभकारी होता है। अपनी बार्ँइ तरफ दीपक रखें और दार्ँइ तरफ धूप। शुभ मुहर्ूत में निश्चित संख्या में संकल्प करके जाप प्रारम्भ करें। इसके लिए अधिक उपयोगी समय होली, दीपावली, महानवमी, चंद्र या र्सर्ूय ग्रहण, अमावस्या, सोमवती अमावस्या, इत्यादि हैं। सभी इष्ट के लिए अलग-अलग प्रकार की मालाओं का विधान है। मालाओं में १०८ गुडिÞया भगवान शिव के ‘शिवसूत्र’ में वणिर्त १०८ ध्यान पद्धतियों का सूचक है।
शिव के लिए रुदाक्ष की माला, हनुमान के लिए रक्त चन्दन या मंूगे की माला, विष्णु के लिए तुलसी या चन्दन, लक्ष्मी के लिए कमल गट्टे एवं अधिकांश कार्यों के लिए स्फटिक की माला उपयोगी होती है। अलग-अलग कार्यो के लिए गुडिÞयों की संख्या का विशेष महत्व होता है। जैसे -मोक्ष प्राप्ति के लिए २५ गुडिÞयों की माला, धन और लक्ष्मी के लिए ३० गुडिÞयों की माला, निजी स्वार्थ के लिए २७ गुडिÞयों की माला, प्रिया प्राप्ति के लिए ५४ गुडिÞयों की माला, और समस्त कार्याें एवं सिद्धियों के लिए १०८ गुडिÞयों की माला का विधान है।
तंत्र साधना में मंत्र और यंत्र दोनों की आवश्यकता होती है। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मंत्र का कार्य ध्वनि के क्षेत्र में प्रभाव डÞालना है और यंत्र का कार्य दृश्य के क्षेत्र में प्रभाव डÞालना है। आप देखते हैं कि यंत्रोें में ज्यामितीय रेखा काफी होती है। ये कोई साधारण रेखा नहीं होती। सभी चिन्हों के अलग-अलग रहस्य भरे अर्थ और उपयोगिता होती है। कोई भी साधक इस यंत्र पर ध्यान केन्द्रित करके जन्म-मरण के रहस्य को जान सकता है। यहाँ मैं यंत्रो में छिपी रहस्यों को दर्शाने जा रहा हँू ः-
बिन्दु ः-
यंत्र के बीच में बिन्दु होता है, यह पराशक्ति का प्रतीक है। इसकी बाहरी परत पर विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं और अन्त में उसी में समाहित हो जाती हैं। यह उस पर्ूण्ा का सूचक है जो र्सवव्यापक भी है। प्राकृतिक विज्ञान के अनुसार बिन्दु विश्व का बीज है। जिससे सृष्टि की उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सृष्टि का विलय भी हो जाता है।
त्रिकोण ः-
यह पराशक्ति के प्रथम विकास का सूचक है। चूँकि आकाश को तीन से कम रेखाओं द्वारा घेरा नही जा सकता। यंत्र का नीचे मुख वाला त्रिकोण ‘शक्ति त्रिकोण’ कहलाता और उपरी मुखवाला ‘शिव त्रिकोण’ कहलाता है। इस प्रकार त्रिकोण प्रजननशील योनी का प्रतीक है।
वृत्त ः-
पराशक्ति की असीम शक्ति का बोध वृत्त से होता है। अपनी परिधि के प्रत्येक बिन्दु से केन्द्र में स्थित बिन्दु की ओर यह सूचित करता है।
चतुष्कोण ः-
चतुष्कोण का मुख चारों दिशाओ कि ओर रहता है। यह आकाश की समग्रता का प्रतीक है। इसे दशों दिशाओं एवं समस्त सृष्टि का आधार माना गया है।
पद्मदल ः-
यंत्र में अवस्थित पद्मदल हमेशा परिधि की ओर मुख किए हुए रहता है। इससे ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह विश्व के जन्म एवं विकास की अपर्ूव शक्ति का बोध कराता है। जिस  प्रकार कमल जल में रहकर भी पानी और कीचडÞ से दूर रहता है उसी प्रकार पद्मदल साधक को र्व्यर्थ की संासारिक रागों से दूर रहने की प्रेरणा देता है।
प्रत्येक क्रिया में ऊर्जा की आवश्यकता होती है और ऊर्जा से आकर्षा पैदा होता है। इस अस्तित्व में सभी वस्तुओं में आकर्षा है। हिन्दू शास्त्रों में आकर्षा शक्ति प्राप्ति की तीन प्रणाली है-
मांत्रिक, यांत्रिक और तांत्रिक –
बिना आकर्षा के प्रकृति निर्जीव, जडÞ एवं शून्य हो जाएगी। प्रकाश आकर्षा है अंधकार विकर्षा है। जब तक मन पर आधिपत्य नही होगा आकर्षा का प्रयोग सफल नही होगा। ‘दि तंत्र’ में फिलिप राँसन लिखते हैं – यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके उस पर उत्कर्ीण्ा मंत्र का जब सही उच्चारण के साथ जप किया जाता है तो यंत्र, इष्ट की उपस्थिति से जागृत हो जाता है, और उसे बाहरी शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हंै।
मनुष्य के शरीर में सात चक्र हैं, और ब्रम्हाण्ड के विभिन्न भागों में यंत्र अवस्थित हैं। शरीर के चक्रों और ब्रम्हाण्ड के यंत्रों के मध्य गहरा संबन्ध स्थापित होना ही तंत्र साधना है- जो चक्रों और यंत्रों पर ध्यान केन्द्रित करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
अपनी महत्वपर्ूण्ा कृति ‘साइन्स एण्ड तंत्र’ में प्रो. अजीत कुमार कहते हैं – शुद्ध सृजनात्मक सिद्धांत यंत्रों के माध्यम से स्वयं को प्रकट करते हैं और यंत्र चक्रों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। चक्र के माध्यम से ही साधक अपनी मानसिक शक्ति को जागृत करता है एवं यंत्र और चक्र के माध्यम से ही शक्ति ९क्गउभच भ्लभचनथ० स्वयं को प्रक्रट करती है।
तंत्र के पश्चिमी लेखकों जैसे जोसे अर्गुयेलिस और मरियम अगुयेलिस ने यंत्रों की व्याख्या इस प्रकार की है – “यंत्र मस्तिष्क को मात्र एकाग्रता प्रदान करने के लिए मनुष्य द्वारा बनाए गये बाह्य उपकरण नहीं हैं। यह मानवीय चेतना में उपस्थित वास्तविक आकृतियाँ हैं जिन्हें साधक ध्यानावस्था में देख चुके हैं”।
तंत्र साधना के लिए उपयोगी स्थान श्मशान क्यों –
प्रत्येक कार्य के लिए सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता पडÞती है और ऐसी ऊर्जा का स्रोत भैरवी को माना गया है। भैरवी श्मशान में निवास करती हंै। इसलिए श्मशान में बडÞी ही आसानी से शांति के साथ ऊर्जा की प्राप्ति हो जाती है। तंत्र के जन्मदाता भगवान शिव भी श्मशान में ही तंत्र साधना करते थे।
अथर्ववेद में तंत्र का वर्ण्र्ाा-
अथर्ववेद में धन-प्राप्ति, सुख-शांति, व्यापारिक सफलता, रोग निवारण, इच्छित कार्य सफलता, इत्यादि कार्यों के लिए विशेष मंत्र का उल्लेख है। अथर्ववेद के अनुसार प्रत्येक मंत्र के प्रत्येक अक्षर में एक विशेष ध्वनि होती है और प्रत्येक ध्वनि का अपना कंपन होता है और इन कंपनों की निश्चित संख्या होती है।
यहां मैं मंत्रों से प्राप्त होनेवाले लाभ के बारे में बतलाने जा रहा ह“ू-
‘ç नमः शिवाय’ -स्वास्थ्य लाभ और मानसिक शांति के लिए।
ç’ शांति प्रशांति र्सव क्रोधोपशमनि स्वाहाु -क्रोध शांति के लिए।
‘ç’ हृीं नमः’ – धन प्राप्ति के लिए।
‘ç हृीं श्रीं अर्ह नमः’ विजय प्राप्ति के लिए।
‘ç क्लिीं ऊँ’ – कार्य की रुकावट दूर करने के लिए।
‘ç नमो भगवते वासुदेवाय’ – आकस्मिक दर्ुघटना से बचाव के लिए।
‘ç गं गणपतये नमः’ – व्यापार लाभ, संतान प्राप्ति, विवाह एवं समस्त कार्यो के लिए।
‘ç हृीं हनुमते रुद्रात्म कायै हुं फटः’ – पद वृद्धि के लिए।
‘ç हं पवन बंदनाय स्वाहा’ – प्रेत बाधा से मुक्ति के लिए।
‘ç भ्रां भ्रीं भौं सः राहवे नमः’ – पारिवारिक शांति के लिए।
साधना से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना जरुरी है। जैसे ः धन प्राप्ति के लिए -लाल रंग, विद्या प्राप्ति के लिए पीला, रोग मुक्ति के लिए सफेद माला का प्रावधान है। इसके अलावा जिस रंग की माला हो, उसी रंग का आसन और वस्त्र भी लाभकारी होता है। मंत्र जाप या किसी भी साधना के समय अगर चंद्र नाडÞी चल रही हो तो और अधिक लाभकारी माना गया है। साधना पर्ूण्ा निष्ठा आस्था एवं नियम से करना चाहिए। क्योंकि गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – ‘संशयात्मा विनश्यति’ शंका से ही विनाश होता है।
यंत्रों से संबंधित लाभ ः-
श्रीयंत्र- र्सव मनोकामना पर्ूर्ति हेतु।
गणेश यंत्र- व्यापारिक सफलता हेतु।
श्री लक्ष्मी यंत्र -आर्थिक सफलता हेतु।
श्री बगलामुखी यंत्र- शत्रु पर विजय के लिए।
श्री महामृत्युंञ्जय यंत्र- लंबी उम्र के लिए।
श्री हनुमान यंत्र- बुरे आत्मा से बचाव के लिए।
दर्ुगा यंत्र- कार्यो में सफलता के लिए।
काल माया मोहिनी यंत्र- इच्छापर्ूर्ति के लिए।

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